" एक बेटा ऐसा भी
माँ , मुझे कुछ महीने के लिये विदेश जाना पड़ रहा है ।
तेरे रहने का इन्तजाम मैंने करा दिया है ।
" तक़रीबन 32 साल के , अविवाहित डॉक्टर सुदीप ने देर रात घर में घुसते ही कहा ।
बेटा , तेरा विदेश जाना ज़रूरी है क्या ?
" माँ की आवाज़ में चिन्ता और घबराहट झलक रही थी ।
' माँ , मुझे इंग्लैंड जाकर कुछ रिसर्च करनी है ।
वैसे भी कुछ ही महीनों की तो बात है ।
" सुदीप ने कहा ।
' जैसी तेरी इच्छा ।
" मरी से आवाज़ में माँ बोली ।
और छोड़ आया सुदीप अपनी माँ ' प्रभा देवी ' को पड़ोस वाले शहर में स्थित एक वृद्धा - आश्रम में ।
वृद्धा - आश्रम में आने पर शुरू - शुरू में हर बुजुर्ग के चेहरे पर जिन्दगी के प्रति हताशा और निराशा साफ झलकती थी ।
पर प्रभा देवी के चेहरे पर वृद्धा - आश्रम में आने के बावजूद कोई शिकन तक न थी ।
एक दिन आश्रम में बैठे कुछ बुजुर्ग आपस में बात कर रहे थे ।
उनमें दो - तीन महिलायें भी थीं । उनमें से एक ने कहा , " डॉक्टर का कोई सगा - सम्बन्धी नहीं था जो अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया ।
" तो वहाँ बैठी एक महिला बोली , " प्रभा देवी के पति की मौत जवानी में ही हो गयी थी । तब सुदीप कुल चार साल का था । पति की मौत के बाद , प्रभा देवी और उसके बेटे को रहने और खाने के लाले पड़ गये ।
तब किसी भी रिश्तेदार ने उनकी मदद नहीं की । प्रभा देवी ने लोगों के कपड़े सिल - सिल कर अपने बेटे को पढ़ाया । बेटा भी पढ़ने में बहुत तेज था , तभी तो वो डॉक्टर बन सका ।
" वृद्धा - आश्रम में करीब 6 महीने गुज़र जाने के बाद एक दिन प्रभा देवी ने आश्रम के संचालक राम किशन शर्मा जी के ऑफिस के फोन से अपने बेटे के मोबाईल नम्बर पर फोन किया , और कहा , " सुदीप तुम हिंदुस्तान आ गये हो या अभी इंग्लैंड में ही हो ? " " माँ , अभी तो मैं इंग्लैंड में ही हूँ । " सुदीप का जवाब था । तीन - तीन , चार - चार महीने के अंतराल पर प्रभा देवी सुदीप को फ़ोन करती उसका एक ही जवाब होता ,
मैं अभी वहीं हूँ , जैसे ही अपने देश आऊँगा तुझे बता दूंगा । " इस तरह तक़रीबन दो साल गुजर गये । अब तो वृद्धा - आश्रम के लोग भी कहने लगे
कि देखो कैसा चालाक बेटा निकला , कितने धोखे से अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया । आश्रम के ही किसी बुजुर्ग ने कहा , " मुझे तो लगता नहीं कि डॉक्टर विदेश - पिदेश गया होगा , वो तो बुढ़िया से छुटकारा पाना चाह रहा था । " तभी किसी और बुजुर्ग ने कहा , " मगर वो तो शादी - शुदा भी नहीं था । "
II अरे होगी उसकी कोई ' गर्ल - फ्रेण्ड ' , जिसने कहा होगा पहले माँ के रहने का अलग इंतजाम करो ,
तभी मैं तुमसे शादी करूँगी । " दो साल आश्रम में रहने के बाद अब प्रभा देवी को भी अपनी नियति का पता चल गया । बेटे का गम उसे अंदर ही अंदर खाने लगा । वो बुरी तरह टूट गयी ।
दो साल आश्रम में और रहने के बाद एक दिन प्रभा देवी की मौत हो गयी । उसकी मौत पर आश्रम के लोगों ने आश्रम के संचालक शर्मा जी से कहा ,
" इसकी मौत की खबर इसके बेटे को तो दे दो । हमें तो लगता नहीं कि वो विदेश में होगा , वो होगा यहीं कहीं अपने देश में । " इसके बेटे को मैं कैसे खबर करूँ । उसे मरे तो तीन साल हो गये ।
" शर्मा जी की यह बात सुन वहाँ पर उपस्थित लोग सनाका II खा गये । उनमें से एक बोला , " अगर उसे मरे तीन साल हो गये तो प्रभा देवी से मोबाईल पर कौन बात करता था । "
" वो मोबाईल तो मेरे पास है , जिसमें उसके बेटे की रिकॉर्डेड आवाज़ है । " शर्मा जी बोले । " पर ऐसा क्यों ? " किसी ने पूछा ।
II तब शर्मा जी बोले कि करीब चार साल पहले जब सुदीप अपनी माँ को यहाँ छोड़ने आया तो उसने मुझसे कहा , शर्मा जी मुझे ' ब्लड कैंसर ' हो गया है ।
और डॉक्टर होने के नाते मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ , कि इसकी आखिरी स्टेज में मुझे बहुत तकलीफ होगी । मेरे मुँह से और मसूड़ों आदि से खून भी आयेगा ।
मेरी यह तकलीफ़ माँ से देखी न जा सकेगी । वो तो जीते जी ही मर जायेगी । मुझे तो मरना ही है पर मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण मेरे से पहले मेरी माँ मरे ।
मेरे मरने के बाद दो कमरे का हमारा छोटा सा ' फ्लेट ' और जो भी घर का सामान आदि है वो मैं आश्रम को दान कर दूँगा । "
यह दास्ताँ सुन वहाँ पर उपस्थित लोगों की आँखें झलझला आयीं ।
प्रभा देवी का अन्तिम संस्कार आश्रम के ही एक हिस्से में कर दिया गया । उनके अन्तिम संस्कार में शर्मा जी ने आश्रम में रहने वाले बुजुर्गों के परिवार वालों को भी बुलाया ।
माँ - बेटे की अनमोल और अटूट प्यार की दास्ताँ का ही असर था कि कुछ बेटे अपने बूढ़े माँ / बाप को वापस अपने घर ले गये ।
लेखक - नागेन्द्र पाल सोनी .........
